इस वक़्त तो यूँ लगता है अब कुछ भी नहीं है
महताब न सूरज न अँधेरा न सवेरा
मुम्किन है कोई वहम हो मुम्किन है सुना हो
गलियों में किसी चाप का एक आख़िरी फेरा
शाख़ों में ख़्यालों के घने पेड़ की शायद
अब आके करेगा न कोई ख़्वाब बसेरा
इक बैर न इक महर न इक रब्त न रिश्ता
तेरा कोई अपना न पराया कोई मेरा
फ़ैज़
इस तरह है कि पस-ए-पर्दा कोई साहिर है
जवाब देंहटाएंजिसने आफ़ाक़ पे फैलाया है यूँ सहर का दाम
दामन-ए-वक़्त से पैवस्त है यूँ दामन-ए-शाम
अब कभी शाम बुझेगी न अँधेरा होगा
अब कभी रात ढलेगी न सवेरा होगा...
-- फ़ैज़
सुभान अल्लाह...फैज़ के शेर और बेहद खूबसूरत चित्र...
जवाब देंहटाएंनीरज
तसवीरें
जवाब देंहटाएंकुछ कह तो रही हैं....
कुछ, आपके फ़न की महारत बन कर
कुछ, "फैज़" की अज़ीम शाइरी बन कर
कुछ, ऋचा जी का उम्दा इन्तिख़ाब बन कर
कुछ, नीरज जी की खूबसूरत तारीफ़ बन कर
Beautiful shots
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