इस वक़्त तो यूँ लगता है अब कुछ भी नहीं है
महताब न सूरज न अँधेरा न सवेरा
मुम्किन है कोई वहम हो मुम्किन है सुना हो
गलियों में किसी चाप का एक आख़िरी फेरा
शाख़ों में ख़्यालों के घने पेड़ की शायद
अब आके करेगा न कोई ख़्वाब बसेरा
इक बैर न इक महर न इक रब्त न रिश्ता
तेरा कोई अपना न पराया कोई मेरा
फ़ैज़